एकेश्वरवाद संपादन

एकेश्वरवाद एगो वू सिद्धान् छेकै जे ईश्वर एक छेकै' अथवा एक्के ठो ईश्वर छै, विचार क सर्वप्रमख रूप मँ मान्यता दै छै। एकेश्वरवदी एक ही ईश्वर मँ विश्वस करै छै । आरू खाली ओकरे पूजा आरू उपासना करै छै। इसके साथ ही वह किसी भी ऐसी अन् अलौकिक शक्ति या देवता को नही मानता जो उस ईश्वर का समकक्ष हो सक अथवा उसका स्थन ले सके इसी दृष्ट से बहुदेववाद एकदेववद का विलोम सिद्धान् कहा जता है। एकेश्वरवद के विरोधी दार्निक मतवादो में दार्निक सर्वश्वरवाद, दार्निक निरीश्वरवद तथा दार्निक सदेहवाद की गना की जाती है। सर्वेश्वरवाद ईश्वर और जगत् मे अभिन्नता मानता है उसके सिद्धतवाक्य हैं सब ईश्वर है तथा ईश्वर सब है । एकेश्वरवद केवल एक ईश्वर की सत्त मानता है। सर्वश्वरवाद ईश्वर और जगत् दनों की सत्ता मानता है यद्यपि जगत् की सत्ता के स्वरूप मे वमत्य है तथापि ईश्वर और जगत् क एकता अवश्य स्वीकर करता है ईश्वर एक है वाक्य की सूक्ष् दार्निक मीमांस करने पर यह कहा जा सकता है कि सर्सत्ता ईश्वर है। यह निष्कर् सर्वश्वरवाद के निकट है। इसीलिए ये वाक्य एक ह तथ्य को दो ढग से प्रकट करते है इनका तुलनात्मक अध्ययन करने से यह प्रकट होता है कि 'श्वर एक है' वाक्य जहाँ ईश्वर के सर्वाततत्व की ओर केत करता है वही सब ईश्वर हैं' वाक्य ईश्वर के सर्व्यापकत्व की ओर।

देशकालगत प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर ईश्वर के तीन विषम रूपों के अनुसार तन प्रकार के एकेश्वरवाद का भी उल्लख मिलता है

  • १. इजरायली एकेश्वरवद
  • २. यूनान दर्न का हलेनिक एकेश्वरवद, तथा
  • ३. हिद एकेश्वरवद।

इनमे से तीसरा एकेश्वरवद सर्वधिक व्यापक है और इसका सर्वश्वरवाद से बहत निकटता है। यह सिद्धात केवल ईश्वर की ह पूर् सत्ता पर जोर नही देता अपित जगत् क असत्ता पर भी जोर देता है किन्त विभिन्न दार्निक दृष्टयों से वह जगत् की सत्ता और असत्ता दोनो का दो प्रकार के सत्यो के रूप मे प्रतिपदन भी करता ह जगत् की असत्ता भी समान रूप से जोर देने के कारण कुछ लोग हिन्दू सर्श्वरवाद का एकेश्वरद के निकट देखते हुए उसके लिए शब्द का प्रयग अधिक संगत मानत हैं। इस दृष्ट से जगत् की सत्त केवल प्रतत मात्र है।

हिंद एकेश्वरवद में ऐतिहसिक दृष्टि से अनेक विशेषताए देखने में आती है कालानुसर उनके अनेक रूप मिलते । सर्वेश्वरवद और बहदेववद परस्पर घनिष्भवेन संबद् हैं। कुछ लोग विकासक्म की दृष्ट से बहुदेववाद को सर्वप्थम स्थान देते हैं। भारतीय धर् और चिंतन के विकास में प्रारभिक वदिक युग में बहदेववाद की तथा उत्तर वदिक युग मे सभी देवत के पीछे एक पम शक्ति की कल्पना मिलती है दूसरे मत से यद्यप वदिक देवता के बहुत्व को देखकर सामान्य पाठक वेदो को बहदेववादी कह सकता है तथापि प्रबद्ध अध्येता को उनम न तो बहुदेवाद का दर्श होगा और न ही केश्वरवाद का। वह तो भारतीय धर्चिन्तना की एक ऐसी स्थति है जिसे उन दोन का उत्स मान सकते हैं। वस्तत: यह धार्मक स्थिति इतनी विकसित थी कि उक्त दोनों में से किसी एक की ओर वह उन्मख हो सके। किंतु जैसे जैसे धर्चिंतन की गभीरता की प्रवृत्त बढ़ती गई, वैसे वैसे भारतय चतना की प्रवृत्त भी एकेश्वरवद की ओर बढ़ती गई कर्मकडी कर्म स्वत: अपना फल प्रदान करते है, इस धारणा ने भी बहदेववाद के दवताओं की महत्ता को कम किया। उपनषद् काल में ब्ह्मविद्या का प्रचार होने पर एक श्वर अथवा शक्ति की विचरणा प्रधान हो गई। पुरणकाल में अनेक देवताओ की मान्यता होत हुए भी, उनमे से किसी एक को प्रधन मानकर उसकी उपाना पर जोर दिया गया वेदान्त दर्शन क प्राबल्य होन पर बहदेववादी मान्यतएँ और भी दुर्ल हो गई एवं एक ही श्वर अथवा शक्त का सिद्धन्त प्रमु हो गया। इन्हीं आधारों पर कछ लोग एकेश्ववाद को गंभीर चितना का फल मनते हैं। वस्तुत संपूर्ण भारतीय धर्मसाधना, चितना और साहत्य के ऊपर विचार करने पर सर्वश्वरवाद (जो एकेश्वरवाद के अधिक नकट है) की ही व्यापकता सर्वत्र परिक्षित होती है। यह भारतीय मतवद यद्यपि जनप्रलित बहुदेववाद से बहु दूर है तथापि न्य देशों की तरह यहाँ भी सर्वश्वरवाद बहुदेवाद से नैकटय स्थापत कर रहा है।

महभरत के नारयणीयोपाख्या में श्वतद्वीपीय निवासियों को एकेश्वरवदी भक्ति से पन्न कहा गया है। विष्वकसेन संहिता ने वैदकों की, एकदेववदी न होने तथा वदिक कर्मकांडी विधानों में विश्वा करने के कारण, कटु आलोचना की है। इसी प्रकार भारतीय धर्मन्तना में एकेश्वरवद का एक और रूप मिलत है। पहले ब्रह्म, विष्ण और महेश की विभिन्नता प्रतिपादत हो गई, साथ ही कहीं-कहीं विष्ण और ब्रह्म को शिव में समाविष्ट भी माना गया। कालातर में एकता की भावना भी विकसत हो गई। केवल शव में ही शे दोनों देवताओं के गुण का आरोप हो गया। विष्णु के संबं में भी इसी प्रकार का आरोप मिल है। विष्णुपरा तो तीनों को एक परमात्मा की अभिव्यक्ति मानता है। यह परमात्मा कहीं शिव रूप में है और कहीं विष्णु रूप में।

दूसरा अतिप्सिद्ध एकश्वरवद इस्लमी है। केवल परमात्म की सत्ता को स्वीकर करते हुए यह मत मानत है कि बहदेववद बहुत बड़ा पाप है। ईश्वर एक है। उसके अतिरिक् कोई दूसरी सत्ता ही है। वह सर्वक्तिमान् है, अतलनीय है, स्वपम है, सर्वतीत है। वह इस जगत् का कारण है और निर्मता है। वह अवत नहीं लेता। वह देश काल से परे अनादि और असीम है, तथै निर्गुण और एकरस है। इस्लाम क ही अंतर्गत विकसित सूफ मत में इन विचारो के अतिरिक्त उसे सर्वव्यपी सत्ता माना गया। सर्वत्र उसी की विभूतयों का दर्न होता है। परिणामत: उन लोगों ने परमात्का निवास सबमे और सबका निवस परमात्मा में माना। यह एकेश्वरवाद से सर्वेश्रवाद की ओर होनेवाल विकास का संकत है, यद्यपि मूल इस्लामी एकेश्ववाद से यहाँ इसकी भिन्नता भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।

इन्हें भी देखें संपादन

  • बहुदेववाद
  • सर्वेश्वरवाद

बाहरी कड़ियाँ संपादन

  • बहुदेववाद में समाया एकेश्वरवाद

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