जीनोम परियोजना ई वैज्ञानिक परियोजना छीकै, जेकरो लक्ष्य कोय प्राणी के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम के पता करना छीकै। जीन हमरो जीवन के कुंजी छीकै। हम् सब वैसने ही दिखै छीयै या करै छीयै, जे काफी अंश तक हमरो देह म छिपलो सूक्ष्म जीन तय करै छै। यही नय, जीन मानव इतिहास आरू भविष्य के ओर भी संकेत करै छै। जीन वैज्ञानिक के मानना छै, कि यदि एक बार मानव जाति के समस्त जीन के संरचना के पता लगी जाय, त मनुष्य के जीन-कुण्डली के आधार प, होकरो जीवन के समस्त जैविक घटना आरू दैहिक लक्षण के भविष्यवाणी करना संभव होय जैयतै। यद्यपि यह कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि मानव शरीर में हजारों लाखों जीवित कोशिकएं होतीं हैं। जीनों के इस विशाल समूह को जीनोम कहते हैं। आज से लगभग 136 वर्ष पूर्व, बोहेमियन भिक्षुक ग्रेगर जॉन मेंडल ने मटर के दानों पर किये अपने प्रयोगों[1] को प्रकाशित किया था,[2] जिसमें अनुवांशिकी के अध्ययन का एक नया युग आरंभ हुआ था। इन्हीं लेखों से कालांतर में आनुवांशिकी के नियम बनाए गए। उन्होंने इसमें एक नयी अनुवांशिकीय इकाई का नाम जीन रखा, तथा इसके पृथक होने के नियमों का गठन किया। थॉमस हंट मॉर्गन ने १९१० में ड्रोसोफिला (फलमक्खी) के ऊपर शोधकार्य करते हुए, यह सिद्ध किया, कि जीन गुणसूत्र में, एक सीधी पंक्ति में सजे हुए रहते हैं, तथा कौन सा जीन गुणसूत्र में किस जगह पर है, इसका भी पता लगाया जा सकता है। हर्मन मुलर ने १९२६ में खोज की, कि ड्रोसोफिला के जीन में एक्सरे से अनुवांशिकीय परिवर्तन हो जाता है, जिसे उत्परिवर्तन भी कहते हैं। सन १९४४ में यह प्रमाणित हुआ कि प्रोटीन नहीं, वरन डी एन ए ही जीन होता है। सन १९५३ में वॉटसन और क्रिक ने डी एन ए की संरचना का पता लगाया और बतया, कि यह दो तंतुओं से बना हुआ घुमावदार सीढ़ीनुमा, या दोहरी कुंडलिनी के आकार का