जैन धर्म श्रमण परम्परा स निकल्लो छै, आरू हेकरो प्रवर्तक छीकै २४ तीर्थंकर, जे की पहला तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) आरू अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी छीकै। जैन धर्म के अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करै वाला अनेक उल्लेख साहित्य आरू विशेषकर पौराणिक साहित्य म प्रचुर मात्रा म छै। श्वेतांबरदिगम्बर जैन पन्थ के दुगो सम्प्रदाय छीकै, आरू इनको ग्रन्थ समयसारतत्वार्थ सूत्र छीकै। जैन के प्रार्थना स्थल, जिनालय या मन्दिर कहलावै छै।[१] कार्य करती है

जैन ध्वज

'जिन परम्परा' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन मन वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म।

अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है‌। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है।

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